मानव के उदय से लेकर दसवीं सदी तक के भारत का इतिहास
प्राचीन भारत का इतिहास कहलाता है। इसके बाद के भारत को मध्यकालीन भारत कहते हैं जिसमें मुख्यतः मुस्लिम शासकों का प्रभुत्व रहा था।
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पाषाण युगपाषाण युग से तात्पर्य ऐसे काल से है जब लोग पत्थरों पर आश्रित थे। पत्थर के औज़ार, पत्थर की गुफ़ा ही उनके जीवन के प्रमुख आधार थे। यह मानव सभ्यता के आरंभिक काल में से है जब मानव आज की तरह विकसित नहीं था। इस काल में मानव प्राकृतिक आपादाओं से जूझता रहता था और शिकार तथा कन्द-मूल फल खाकर अपना बसर करता था।पुरापाषाण युगहिमयुग का अधिकांश भाग पुरापाषाण काल में बीता है। भारतीय पुरापाषाण युग को औजारों, जलवायु परिवर्तनों के आधआर पर तीन भागों में बांटा जाता है -
- आरंभिक या निम्न पुरापाषाण युग (25,00,000 ईस्वी पूर्व - 100,000 ई. पू.)
- मध्य पुरापाषाण युग (1,00,000 ई. पू. - 40,000 ई. पू.)
- उच्च पुरापाषाण युग (40,000 ई.पू -10,000 ई.पू.)
आदिम मानव के जीवाश्म भारत में नहीं मिले हैं। महाराष्ट्र
के बोरी नामक स्थान पर मिले तथ्यों से अन्देशा होता है कि मानव की उत्पत्ति 14 लाख
वर्ष पूर्व हुई होगी। हँलांकि यह बात लगभग सर्वमान्य है कि अफ़्रीका की अपेक्षा
भारत में मानव बाद में बसे। यद्दपि यहां के लोगों का पाषाण कौशल लगभग उसी तरह
विकसित हुआ जिस तरह अफ़्रीका में। इस समय का मानव अपना भोजन कठिनाई से ही बटोर
पाता था। वह ना तो खेती करना जानता था और ना ही घर बनाना। यह अवस्था 9000 ई.पू. तक
रही होगी।
पुरापाषाण काल के औजार छोटानागपुर के पठार में मिले हैं जो 1,00,000 ई.पू. तक हो सकते हैं। आंध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में 20,000
ई.पू. से 10,000 ई.पू. के मध्य के
औजार मिले हैं। इनके साथ हड्डी के उपकरण और पशुओं के अवशेष भी मिले हैं। उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जिले की बेलन घाटी में जो पशुओं के अवशेष मिले हैं उनसे ज्ञात होता है कि बकरी, भैंड़, गाय, भैंस
इत्यादि पाले जाते थे। फिर भी पुरापाषाण युग की आदिम अवस्था का मानव शिकार और
खाद्य संग्रह पर जीता था। पुराणों में केवल फल और कन्द मूल खाकर जीने वालों का जिक्र है। इस तरह के कुछ लोग तो आधुनिक
काल तक पर्वतों और गुफाओं में रहते आए हैं।
नवपाषाण युग
भारत मे नवपाषाण युग के अवशेष सम्भवता 6000 इसा पुर्व से
1000 इसा पुर्व के है, विकास कि यह अवधि भारतीय
उपमहाद्वीप मे कुछ देर से आयी, क्योकि
ऐसा माना जाता है कि विश्व के बडे भुभाग मे यह युग 7000 इसा पुर्व के आसपास पनपा
इस युग मे मानव पत्थर कि बनी हाथ कि कुलहाडिया आदि औजार पतथर को छिल घीस और चमकाकर
तैयार करता था, उत्तरी भारत मे नवपाषाण
युग का स्थल बुर्जहोम (कशमीर) मे पाया गया है भारत मे नव पाषाण काल के प्रमुख चार
स्थल है
ताम्र पाषाण युग
नवपाषाण युग का अन्त होते होते धातुओं का प्रयोग शुरू हो
गया था। ताम्र पाषाणिक युग में तांबा तथा प्रस्तर के हथियार ही प्रयुक्त होते थे।
इस समय तक लोहा या कांसे का प्रयोग आरम्भ नहीं हुआ था। भारत में
ताम्र पाषाण युग की बस्तियां दक्षिण पूर्वीराजस्थान, पश्चिमी
मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा
दक्षिण पूर्वी भारत में पाई गई है।
कांस्य युग
बीसवीं शताब्दी के
प्रारंभ तक इतिहासकारों की यह मान्यता थी कि वैदिक सभ्यता भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता है। परन्तु सर दयाराम साहनी के नेतृत्व में १९२१ में जब हड़प्पा (पंजाब के मान्टगोमरी जिले में स्थित) की खुदाई हुई तब इस
बात का पता चला कि भारत की सबसे पुरानी सभ्यता वैदिक नहीं वरन सिन्धु घाटी की सभ्यता है। अगले साल अर्थात १९२२ में राखालदास बनर्जी के नेतृत्व में मोहनजोदड़ो (सिन्ध के लरकाना जिले में स्थित) की खुदाई हुई। हड़प्पा टीले के बारे में
सबसे पहले चार्ल्स मैसन ने १९२६ में उल्लेख किया था। मोहनजोदड़ो को सिन्धी भाषा में मृतकों का टीला कहा जाता है। १९२२ में राखालदास बनर्जी
ने और इसके बाद १९२२ से १९३० तक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में यहां उत्खनन कार्य
करवाया गया।
उत्पत्ति
इतनी विस्तृत सभ्यता होने के बावजूद भी इसकी उत्पत्ति को
लेकर आज भी विद्वानों में मतैक्य का अभाव है। इसकी सबसे बड़ी बजह यह है कि हड़प्पा
संस्कृति के जितने भी स्थलों की अब तक खुदाई हुई है वहां सभ्यता के विकास अनुक्रम
का चिन्ह स्पष्ट नही मिलता है अर्थात इस सभ्यता के अवशेष जहां कहीं भी मिले हैं
अपनी पूर्ण विकसित अवस्था में ही मिले हैं।
सर जॉन मार्शल, गार्डन
चाईल्ड, मार्टीमर व्हीलर आदि
इतिहासकारों की मान्यता है कि हड़प्पा सभ्यता की उत्पत्ति में विदेशी तत्व का हाथ
रहा है। इन इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा की उत्पत्ति मेसोपोटामिया की शाखा सुमेरिया की सभ्यता की प्रेरणा से हुई है। इन दोनो
सभ्यताओं में कुछ समानताएं भी देखने को मिलती है जो इस प्रकार है -
(१) दोनो ही सभ्यता नागरीय है।
(२) दोनो ही सभ्यताओं के निवासी कांसे और तांबे के साथ साथ
पाषाण के लघु उपकरणों का प्रयोग करते थे।
(३) दोनों ही सभ्यताओं के भवन निर्माण में कच्चे और पक्के
दोनो ही प्रकार के ईंटों का प्रयोग हुआ है।
(४) दोनो ही सभ्यत
(५) दोनो को लिपि का ज्ञान था।
इन्ही समानताओं के आधार पर व्हीलर ने सैन्धव सभ्यता को
सुमेरियन सभ्यता का एक उपनिवेश बताय़ा था। लेकिन इन समानताओं के बावजूद कुछ ऐसी
असमानताएं भी हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना
सुमेरिया की सभ्यता से अधिक सुव्यवस्थित है। दोनो ही सभ्यताओं आम उपयोग की चीजें काफी
भिन्न हैं जैसे बर्तन, उपकरण, मूर्तियां, मुहरें
आदि। फिर दोनों ही सभ्यताओं के लिपि में भी अंतर है। जहां सुमेरियाई लिपि में ९००
अक्षर हैं वहीं सिन्धु लिपि में केवल ४०० अक्षर हैं। इन विभिन्नताओं के होते हुए
दोनो सभ्यताओं को समान मानना समुचित नहीं लगता।
वैदिक काल
भारत में
आर्यों का आगमन ईसा के सहत्रों वर्ष पूर्व हुआ। आर्यों की पहली खेप ऋग्वैदिक आर्य
कहलाती है। ऋग्वेद की रचना इसी समय हुई। इसमें कई अनार्य जातियों का उल्लेख
मिलता है। आर्य लोग भारतीय-यूरोपीय
परिवार की भाषाएं बोलते थे। इसी शाखा की
भाषा आज भी भारत, ईरान
(फ़ारस) और यूरोप में
बोली जाती है। भारत आगमन
के क्रम में कुछ आर्य ईरान चले गए। ऋग्वेद की कई बाते अवेस्ता से मिलती हैं। अवेस्ता ईरानी भाषा के प्राचीनतम ग्रंथ है।
दोनो ग्रंथों में बहुत से देवताओं तथा सामाजिक वर्गों के नाम भी समान हैं। ऋग्वेद
में अफ़ग़ानिस्तान की कुभा तथा सिन्धु और उसकी पाँच सहायक नदियों का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वैदिक काल के बाद भारत में धीरे धीरे सभ्यता का स्वरूप
बदलता गया। परवर्ती सभ्यता को उत्तरवैदिक सभ्यता कहा जाता है। उत्तर वैदिक काल में
वर्ण व्यवस्था और कठोर रूप से पारिभाषित तथा व्यावहारिक हो गई। ईसी पूर्व
छठी सदी में, इस कारण, बौद्ध और जैन धर्मों का उदय हुआ। अशोक जैसे
सम्राट ने बौद्ध धर्म के प्रचार में बहुत योगदान दिया। इसके कारण बौद्ध धर्म भारत से
बाहर अफ़ग़ानिस्तान तथा बाद में चीन और जापान पहुंच
गया। अशोक के पुत्र ने श्रीलंका में भी बौद्ध धर्म का प्रचार किया। गुप्त वंश के दौरान भारत की वैदिक सभ्यता अपने स्वर्णयुग में पहुंच
गई। कालिदास जैसे लेखकों ने संस्कृत की श्रेष्ठतम रचनाएं कीं।
बौद्ध और जैन धर्म
ईसा पूर्व छठी सदी तक वैदिक कर्मकांडों की परंपरा का
अनुपालन कम हो गया था। उपनिषद ने जीवन की आधारभूत समस्या के बारे में स्वाधीनता
प्रदान कर दिया था। इसके फलस्वरूप कई धार्मिक पंथों तथा संप्रदायों की स्थापना
हुई। उस समय ऐसे किसी 62 सम्प्रदायों के बार में जानकारी मिलती है। लेकिन इनमें से
केवल 2 ने भारतीय जनमानस को लम्बे समय तक प्रभावित किया - जैन और बौद्ध।
ये दोनों ही पहले से विद्यमान प्रणाली के कतिपय पक्षों पर
आधारित हैं। दोनो यत्यास्पद जीवन (कठोरता पूर्ण और दुखभोगवादी) यानि यतित्ववादी और
भ्रातृभाव पर आधारित है। यतित्ववाद का मूल वेदों में ही है तथा उपनिषदो से उसको
प्रोत्साहन मिलता है।
जैन धर्म
जैन धर्म के दो तीर्थकरों - ऋषभनाथ तथा अरिष्टनेमि- का उल्लेख ऋग्वेद में पाया जाता है। कुच विद्वानों का मत
है कि हड़प्पा की खुदाई में जो नग्न धड़ की मूर्ति मिली है वो किसी तीर्थकर की है।
पार्श्वनाथ तेइसवें तीर्थकर तथा भगवान महावीर चौबीसवें तीर्थकर थे। वर्धमान महावीर जो कि जैनों के सबसे
प्रमुख तथा अन्तिम तीर्थकर थे, का
जन्म 540 ईसापूर्व के आसपास वैशाली के पास कुंडग्राम में हुआ था। 42 वर्ष की अवस्था में
उन्हें कैवल्य (परम ज्ञान) प्राप्त हुआ।
महावीर ने पार्श्वनाथ के चार सिद्धांतों को स्वीकार किया -
- अहिंसा - जीव हत्य न करना
- अमृषा - झूठ न बोलना
- अस्तेय - चोरी न करना
- अपरिग्रह - सम्पत्ति इकठ्ठा न करना
इसके अतिरिक्त उन्होंने अपना पांचवा सिद्धांत भी अपने
उपदेशों में जोड़ा -
- ब्रह्मचर्य - इंद्रियों पर नियंत्रण
इस सम्प्रदाय के दो अंग हैं - श्वेताबर तथा दिगंबर
बौद्ध धर्म
जैन धर्म की तरह इसका मूल भी एक उच्चवर्गीय क्षत्रिय परिवार
से था। गौतम नाम से जन्में महात्मा बुद्ध का जन्म 566 ईसापूर्व में शाक्यकुल के राजा शुद्धोदन के घर
हुआ था। इन्होने भी सांसारिक जीवन जीने के बाद एक दिन (या रात) अचानक से अपना
गार्हस्थ छोड़कर सत्य की खोज में चल पड़े।
बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य समाहित हैं -
- दुख
- दुख समुद्दय
- दुख निरोध
- दुख निरोध गामिनी प्रतिपदा।
उन्होंने अष्टांगिक मार्ग का सुझाव दिया जिसका पालन करके
मनुष्य पुनर्जन्म के बंधन से दूर हो सकता है -
- सम्यक वाक्
- सम्यक कर्मांत्
- सम्यक आजीव
- सम्यक व्यायाम
- सम्यक स्मृति
- सम्यक समाधि
- सम्यक संकल्प
- सम्यक दृष्टि
बौद्ध धर्म का प्रभाव भारत के
बाहर भी हुआ। अफ़ग़ानिस्तान (उस समय फ़ारसी शासकों के अधीन), चीन, जापान तथा श्रीलंका के अतिरिक्त इसने दक्षिण पूर्व एशिया में भी अपनी पहचान
बनाई।
यूनानी तथा फ़ारसी आक्रमण
उस समय उत्तर पश्चिमी भारत में कोई खास संगठित राज्य नहीं
था। लगातार शक्तिशाली हो रहे फ़ारसी साम्राज्य की नज़र इधर की ओर भी गई। हंलांकि अब तक फ़ारस पर राज कर
रहे चन्द्र राजा यूनान, पश्चिमी एशिया तथा मध्य एशिया की ओर बढ़ रहे थे, उन्होंने भारत की अनदेखी नहीं की थी। शक्तिशाली
अजमीड/हखामनी (Achaemenid) शासकों की निगाह इस
क्षेत्र पर थी और Kuru-s कुरुस साईरस
(558ईसापूर्व - 530 ईसापूर्व) ने हिंदूकुश के दक्षिण के रजवाड़ो को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद
दारयवाहु (डेरियस, 522-486 ईसापूर्व) के
शासनकाल में फ़ारसी शासन के विस्तार के साक्ष्य मिलते हैं। इसके उत्कीर्ण लेखों
में दो ज़ग़ह हिन्दू को इसके राज्य का हिस्सा बताया गया है। इस संदर्भ में हिन्दू
शब्द का सही अर्थ बता पाना कठिन है पर इसका तात्पर्य किसा ऐसे प्रदेश से अवश्य है
जो सिंधु नदी के पूर्व में हो।
ईसापूर्व चौथी सदी में जब यूनानी और फ़ारसी शासक पश्चिम
एशिया (आधुनिक तुर्की का क्षेत्र) पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए संघर्ष कर रहे
थे। मकदूनिया के राजा सिकंदर के हाथों हखामनी शासक डेरियस तृतीय के हारने के पश्चात
स्थिति में परिवर्तन आ गया। सिकंदर पश्चिम एशिया जीतने के बाद अरब, मिस्र तथा
उसके बाद फ़ारस के केन्द्र (ईरान) तक
पहुंच गया। इतने से भी जब उसको संतोष नहीं हुआ तो वो अफ़गानिस्तान होते हुए 326 ईसा पूर्व में पश्चिमोत्तर भारत पहुँच गया।
सिकंदर के भारत आने
के बारे में कोई भारतीय स्रोत उपलब्ध नहीं है। सिकंदर के विजय अभियान की बात केवल
यूनानी तथा रोमन स्रोतों में उपलब्ध है तथा उन्हें सत्य के करीब मान कर ये सब लिखा
गया है। यूनानी ग्रंथ तो सिकंदर के भारत
अभियान का विस्तार से वर्णन करते हैं पर वे कौटिल्य के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखते हैं।
सिकंदर जब भारत पहुंचा तो पंजाब
(अविभाजित पंजाब) में रावलपिंडी के पास का राजा उसकी सहायता के लिए पहँच गया। अन्य लगभग
सभी राजाओं ने सिन्दर का डटकर मुकाबला किया पर वे सिकन्दर की अनुभवी सेनाओं से हार
गए। यूनानी लेखकों ने इन राजाओं के वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इसके बाद झेलम और चिनाब के
बीच स्थित प्रदेश का राजा पोरस (जो कि पौरव का यूनानी नाम लगता है) ने
सिकंदर का वीरता पूर्वक सामना किया। कहा जाता है कि हारने के बाद जब वो दन्दी बनकर
सिकन्दर के सामने पेश हुआ तो उससे पूछा गया - तुम्हारे साथ कैसा सुलूक (वर्ताव)
किया जाय। तो उसने साहसी उत्तर दिया -" जैसा एक राजा दूसरे राजा के
साथ करता है "। उसके उत्तर पर मुग्ध होकर सिकन्दर ने उसका हारा हुआ
प्रदेश लौटा दिया। इसके बाद जब उसे भारत के वीर योद्धा चन्द्रगुप्त मोर्य की विशाल
सेना का सामना करना था तब भय से ग्रसित सेना को लेकर सिकन्दर आगे नहीं बढ़ सका और
वापस लौट गया।
महाजनपद्
बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय के अनुसार कुल सोलह (16) महाजनपद थे - अवन्ति,अश्मक या अस्सक, अंग, कम्बोज, काशी, कुरु, कोशल, गांधार, चेदि, वज्जि या
वृजि, वत्स या
वंश, पांचाल, मगध, मत्स्य या मच्छ, मल्ल, सुरसेन।
इनमें सत्ता के लिए संघर्ष चलता रहता था।
मौर्य साम्राज्य
ईसापूर्व छठी सदी के प्रमुख राज्य थे - मगध, कोसल, वत्स
के पौरव और अवंति के प्रद्योत। चौथी सदी में चन्द्रगुप्त मौर्य ने पष्चिमोत्तर भारत को
यूनानी शासकों से मुक्ति दिला दी। इसके बाद उसने मगध की ओर अपना ध्यान केन्द्रित
किया जो उस समय नंदों के शासन में था। जैन ग्रंथ परिशिष्ठ पर्वन में कहा गया है कि
चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त ने नंद राजा को पराजित करके बंदी
बना लिया। इसके बाद चन्द्रगुप्त ने दक्षिण की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के क्षत्रप सेल्यूकस को हाराया था जिसके फलस्वरूप उसने हेरात, कंदहार, काबुल तथा बलूचिस्तान के प्रांत चंद्रगुप्त को सौंप दिए थे।
चन्द्रगुप्त के बाद बिंदुसार के पुत्र अशोक ने
मौर्य साम्राज्य को अपने चरम पर पहुँचा दिया। कर्नाटक के चित्तलदुर्ग तथा मास्की में अशोक के शिलालेख पाए गए
हैं। चुंकि उसके पड़ोसी राज्य चोल, पांड्य या केरलपुत्रों के साथ अशोक या बिंदुसार के किसा लड़ाई का वर्णन नहीं
मिलता है इसलिए ऐसा माना जाता है कि ये प्रदेश चन्द्रगुप्त के द्वारा ही जीता गया
था। अशोक के जीवन का निर्णायक युद्ध कलिंग का युद्ध था। इसमें उत्कलों से लड़ते हुए अशोक को अपनी सेना द्वारा
किए गए नरसंहार के प्रति ग्लानि हुई और उसने बौद्ध धर्म को अपना लिया। फिर उसने
बौद्ध धर्म का प्रचार भी करवाया।
उसी समय यूनानी यात्री मेगास्थनीज़ भारत आया। उसने अशोक के
राज्य तथा उसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) का
वर्णन किया है। इस दौरान कला का भी विकास हुआ
मौर्यों के बाद
मौर्यों के पतन के बाद शुंग राजवंश ने सत्ता सम्हाली। ऐसा माना जाता है कि मौर्य राजा वृहदृथ
के सेनापति पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या कर दी थी जिसके बाद शुंग वंश की
स्थापना हुई। शुंगों ने १८७ ईसापूर्व से ७५ ईसापूर्व तक शासन किया। इसी काल में
महाराष्ट्र में सातवाहनों का और दक्षिण में चेर, चोल और पांड्यों का उदय हुआ। सातवाहनों के साम्राज्य को आंध्र
भी कहते हैं जो अत्यन्त शक्तिशाली था।
पुष्यमुत्र के शासनकाल में पश्चिम से यवनों का आक्रमण हुआ।
इसी काल के माने जाने वाले वैयाकरण पतञ्जलि ने इस आक्रमण का उल्लेख किया है। कालिदास ने भी अपने मालविकाग्निमित्रम् में वसुमित्र के साथ यवनों के युद्ध का जिक्र किया है। इन आक्रमणकारियों
ने भारत की सत्ता पर कब्जा कर लिया। कुछ प्रमुख भारतीय-यूनानी शासक थे - यूथीडेमस, डेमेट्रियस तथा मिनांडर। मिनांडर ने बौद्ध धर्म अपना लिया
था तथा उसका प्रदेश अफगानिस्तान से पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था।
इसके बाद पह्लवों का शासन आया जिनके बारे में अधिक जानकारी
उपल्ब्ध नहीं है। तत्पश्चात शकों का शासन आया। शक लोग मध्य एशिया के निवासी थे
जिन्हें यू-ची नामक कबीले ने उनके मूल निवास से खदेड़ दिया गया था। इसके बाद वे
भारत आए। इसके बाद यू-ची जनजाति के लोग भी भारत आ गए क्योंकि चीन की महान दीवार के बनने के बाद मध्य एशिया की परिस्थिति उनके अनूकूल नहीं
थी। ये कुषाण
कहलाए। कनिष्क इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था। कनिष्क ने ७८ ईसवी से १०१
ईस्वी तक राज किया।
समकालीन दक्षिण भारत
दक्षिण में चेर, पांड्य
तथा चोल के बीच सत्ता संघर्ष चलता रहा था। संगम साहित्य इस समय की सबसे अमूल्य
धरोहर थी। तिरूवल्लुवर द्वारा रचित तिरुक्कुरल तमिल भाषा का प्राचीनतम ग्रंघ माना जाता है। धार्मिक
सम्प्रदायों का प्रचलन था और मुख्यतः वैष्णव, शैव, बौद्ध तथा जैन सम्प्रदायों के अनुयायी थे।
गुप्त काल
सन् ३२० ईस्वी में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना जिसने गुप्त वंश की
नींव डाली। इसके बाद समुद्रगुप्त (३४० इस्वी), चन्द्रगुप्त
द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (४१३-४५५ इस्वी) और स्कंदगुप्त शासक बने। इसके करीब १०० वर्षों तक गुप्त वंश का अस्तित्व
बना रहा। ६०६ इस्वी में हर्ष के
उदय तक किसी एक प्रमुख सत्ता की कमी रही। इस काल में कला और साहित्य का उत्तर तथा
दक्षिण दोनों में विकास हुआ। इस काल का सबसे प्रतापी शासक "समुद्रगुप्त"
था िजसके शासनकाल में भारत को "सोने की िचिड़या" कहा जाने लगा।
ग्यारहवीं तथा बारहवीं सदी में भारतीय कला, भाषा तथा धर्म का प्रचार दक्षिणपूर्व एशिया में भी हुआ।
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