Sunday, December 27, 2015

Ashoka

अशोक महान का पूरा नाम देवानाांप्रिय अशोक मौयय (राजा प्रियदशी देवताओं का प्रिय)। (राजकाल ईसापूवय 273-232) िाचीन भारत में मौयय राजवांश का चक्रवती राजा था। उसके समय मौयय राज्य उत्तर में प्रहन्दुकुश की श्रेप्रियों से लेकर दप्रिि में गोदावरी नदी के दप्रिि तथा मैसूर तक तथा पूवय में बांगाल से पप्रिम में अफ़गाप्रनस्तान तक पहुँच गया था। यह उस समय तक का सबसे बडा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने प्रवस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल िशासन तथा बौद्ध धमय के िचार के प्रलए जाना जाता है।
जीवन के उत्तराधय में अशोक तथागत बुद्ध(प्रसद्धाथय गौतम) की मानवतावादी प्रशिाओं से िभाप्रवत होकर बौद्ध हो गये और उन्ही की स्मृप्रत मे उन्होने एक स्तम्भ खडा कर ददया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल -लुप्रम्बनी -मे मायादेवी मप्रन्दर के पास अशोक स्तम्भ के रुप मे देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धमय का िचार भारत के अलावा श्रीलांका, अफ़गाप्रनस्तान, पप्रिम एप्रशया, प्रमस्र तथा यूनान में भी करवाया। अशोक अपने पूरे जीवन मे एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट अशोक के ही समय में 23 प्रवश्वप्रव्ालयों की स्थापना की गई प्रजसमें तिप्रशला, नालांदा, प्रवक्रमप्रशला,कांधार आदद प्रवश्वप्रव्ालय िमुख थे। इन्हीं प्रवश्वप्रव्ालयों में प्रवदेश से कई छात्र प्रशिा पाने भारत आया करते थे।

आरांप्रभक जीवन
अशोक मौयय सम्राट प्रबन्दुसार तथा रानी धमाय का पुत्र था। लांका की परम्परा में बबदुसार की सोलह पटराप्रनयों और 101 पुत्रों का उल्लेख है। पुत्रों में केवल तीन के नामोल्लेख हैं, वे हैं -सुसीम जो सबसे बडा था, अशोक और प्रतष्य। प्रतष्य अशोक का सहोदर भाई और सबसे छोटा था।एक ददन उसको स्वप्न आया उसका बेटा एक बहत बडा सम्राट बनेगा। उसके बाद उसे राजा प्रबन्दुसार ने अपनी रानी बना प्रलया। चुुँदक धमाय कोई िप्रत्रय कुल से नहीं थी अतः उसको कोई प्रवशेष स्थान राजकुल में िाप्त नहीं था। अशोक के कई (सौतेले) भाई -बहने थे। बचपन में उनमें कडी िप्रतस्पधाय रहती थी। अशोक के बारे में कहा जाता है दक वो बचपन से सैन्य गप्रतप्रवप्रधयों में िवीि था। दो हजार वषों के पिात्, अशोक का िभाव एप्रशया मुख्यतः भारतीय उपमहाद्वीप में देखा जा सकता है। अशोक काल में उकेरा गया ितीतात्मक प्रचह्न, प्रजसे हम 'अशोक प्रचह्न' के नाम से भी जानते हैं, आज भारत का राष्ट्रीय प्रचह्न है। बौद्ध धमय के इप्रतहास में गौतम बुद्ध के पिात् अशोक का ही स्थान आता है।
ददव्यदान में अशोक की एक पत् नी का नाम 'प्रतष्यरप्रिता' प्रमलता है। उसके लेख में केवल उसकी पत् नी 'करूिावदक' है। ददव्यादान में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा प्रवगताशोक का नाम का उल्लेख है।

साम्राज्य-प्रवस्तार
अशोक का ज्येष्ठ भाई सुशीम उस समय तिप्रशला का िाांतपाल था। तिप्रशला में भारतीय-यूनानी मूल के बहत लोग रहते थे। इससे वह िेत्र प्रवद्रोह के प्रलए उपयुक्त था। सुशीम के अकुशल िशासन के कारि भी उस िेत्र में प्रवद्रोह पनप उठा। राजा प्रबन्दुसार ने सुशीम के कहने पर राजकुमार अशोक को प्रवद्रोह के दमन के प्रलए वहाुँ भेजा। अशोक के आने की खबर सुनकर ही प्रवद्रोप्रहयों ने उपद्रव खत्म कर ददया और प्रवद्रोह प्रबना दकसी युद्ध के खत्म हो गया। हालादक यहाुँ पर प्रवद्रोह एक बार दिर अशोक के शासनकाल में हआ था, पर इस बार उसे बलपूवयक कुचल ददया गया।

अशोक का साम्राज्य
अशोक की इस िप्रसप्रद्ध से उसके भाई सुशीम को बसहासन न प्रमलने का खतरा बढ़ गया। उसने सम्राट बबदुसार को कहकर अशोक को प्रनवायस में डाल ददया। अशोक कबलग चला गया। वहाुँ उसे मत्स्यकुमारी कौवयकी से प्यार हो गया। हाल में प्रमले साक्ष्यों के अनुसार बाद में अशोक ने उसे तीसरी या दूसरी रानी बनाया था।
इसी बीच उज्जैन में प्रवद्रोह हो गया। अशोक को सम्राट प्रबन्दुसार ने प्रनवायसन से बुला प्रवद्रोह को दबाने के प्रलए भेज ददया। हालादक उसके सेनापप्रतयों ने प्रवद्रोह को दबा ददया पर उसकी पहचान गुप्त ही रखी गई क्योंदक मौयों द्वारा िैलाए गए गुप्तचर जाल से उसके बारे में पता चलने के बाद उसके भाई सुशीम द्वारा उसे मरवाए जाने का भय था। वह बौद्ध सन्याप्रसयों के साथ रहा था। इसी दौरान उसे बौद्ध प्रवप्रध-प्रवधानों तथा प्रशिाओं का पता चला था। यहाुँ पर एक सुन्दरी, प्रजसका नाम देवी था, उससे अशोक को िेम हो गया। स्वस्थ होने के बाद अशोक ने उससे प्रववाह कर प्रलया।
कुछ वषों के बाद सुशीम से तांग आ चुके लोगों ने अशोक को राजबसहासन हप्रथया लेने के प्रलए िोत्साप्रहत दकया, क्योंदक सम्राट प्रबन्दुसार वृद्ध तथा रुग्ि हो चले थे। जब वह आश्रम में थे तब उनको खबर प्रमली की उनकी माुँ को उनके सौतेले भाईयों ने मार डाला, तब उन्होने महल मे जाकर अपने सारे सौतेले भाईयों की हत्या कर दी और सम्राट बने।
सत्ता सांभालते ही अशोक ने पूवय तथा पप्रिम, दोनों ददशा में अपना साम्राज्य िैलाना शुरु दकया। उसने आधुप्रनक असम से ईरान की सीमा तक साम्राज्य केवल आठ वषों में प्रवस्तृत कर प्रलया।

कबलग की लडाई
अशोक ने अपने राज्याप्रभषेक के ८वें वषय (२६१ ई. पू.) में कबलग पर आक्रमि दकया था। आन्तररक अशाप्रन्त से प्रनपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका प्रवप्रधवत् अप्रभषेक हआ तेरहवें प्रशलालेख के अनुसार कबलग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यप्रक् त बन्दी बनाकर प्रनवायप्रसत कर ददए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। सम्राट अशोक ने भारी नरसांहार को अपनी आुँखों से देखा। इससे द्रप्रवत होकर अशोक ने शाप्रन्त, सामाप्रजक िगप्रत तथा धार्ममक िचार दकया।

कबलग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान पररवतयन कर ददया। उसका हृदय मानवता के िप्रत दया और करुिा से उद्वेप्रलत हो गया। उसने युद्धदक्रयाओं को सदा के प्रलए बन्द कर देने की िप्रत्ा की। यहाुँ से आ्याप्रत्मक और धम्म प्रवजय का युग शुरू हआ। उसने बौद्ध धमय को अपना धमय स्वीकार दकया।
बसहली अनुश्रुप्रतयों दीपवांश एवां महावांश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वषय में प्रनगोथ नामक प्रभिु द्वारा बौद्ध धमय की दीिा दी गई थी। तत्पश् चात् मोगाली पुत्र प्रनस्स के िभाव से वह पूियतः बौद्ध हो गया था। ददव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धमय में दीप्रित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध प्रभिुक को जाता है। अपने शासनकाल के दसवें वषय में सवयिथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरान्त अपने राज्याप्रभषेक के बीसवें वषय में लुप्रम्बनी की यात्रा की थी तथा लुप्रम्बनी ग्राम को करमुक् त घोप्रषत कर ददया था।
बौद्ध धमय अांगीकरि
तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया म्य िदेश में साुँची का स्तूप
कबलग युद्ध में हई िप्रत तथा नरसांहार से उसका मन लडाई करने से उब गया और वह अपने कृत्य से व्यप्रथत हो गया। इसी शोक में वो बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और उसने बौद्ध धमय स्वीकार कर प्रलया।
बौद्ध धमय स्वीकीर करने के बाद उसने उसको अपने जीवन मे उतारने की कोप्रशश भी की। उसने प्रशकार तथा पशु-हत्या करना छोड ददया। उसने ब्राह्मिों अन्य सम्िदायों के सन्याप्रसयों को खुलकर दान ददया। जनकल्याि के प्रलए उसने प्रचदकत्यालय, पाठशाला तथा सडकों आदद का प्रनमायि करवाया।
उसने बौद्ध धमय के िचार के प्रलए अपने धमय िचारक नेपाल, श्रीलांका, अफ़गाप्रनस्तान, सीररया, प्रमस्र तथा यूनान तक भेजे। उसने इस काम के प्रलए अपने पुत्र ओर पुत्री को यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धमय िचारकों मे सबसे अप्रधक सिलता उसके पुत्र महेन्द्र को प्रमली। महेन्द्र ने श्रीलांका के राजा प्रतस्स को बौद्ध धमय मे दीप्रित दकया, प्रजसने बौद्ध धमय को अपना राजधमय बना ददया। अशोक से िेररत होकर उसने अपनी उपाप्रध 'देवनामप्रिय' रख प्रलया।
अशोक के शासनकाल में ही पाटप्रलपुत्र में तृतीय बौद्ध सांगीप्रत का आयोजन दकया गया, प्रजसकी अ्यिता मोगाली पुत्र प्रतष्या ने की। इसी में अप्रभधम्मप्रपटक की रचना हई और बौद्ध प्रभिु प्रवप्रभन् न देशों में भेजे गये प्रजनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवां पुत्री सांघप्रमत्रा को श्रीलांका भेजा गया।

अशोक ने बौद्ध धमय को अपना प्रलया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याि हेतु लगा ददया। अशोक ने बौद्ध धमय के िचार के प्रलए प्रनम्नप्रलप्रखत साधन अपनाये-
(क) धमययात्राओं का िारम्भ,
(ख) राजकीय पदाप्रधकाररयों की प्रनयुप्रक् त,


(ग) धमय महापात्रों की प्रनयुप्रक् त,
(घ) ददव्य रूपों का िदशयन,
(च) धमय श्रावि एवां धमदपदेश की व्यवस्था,
(छ) लोकाचाररता के कायय,
(ज) धमयप्रलप्रपयों का खुदवाना,

(झ) प्रवदेशों में धमय िचार को िचारक भेजना आदद।
अशोक ने बौद्ध धमय का िचार का िारम्भ धमययात्राओं से दकया। वह अप्रभषेक के १०वें वषय बोधगया की यात्रा पर गया। कबलग युद्ध के बाद आमोद-िमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी। अपने अप्रभषेक २०वें वषय में लुप्रम्बनी ग्राम की यात्रा की। नेपाल तराई में प्रस्थत प्रनगलीवा में उसने कनकमुप्रन के स्तूप की मरम्मत करवाई। बौद्ध धमय के िचार के प्रलए अपने साम्राज्य के उच्च पदाप्रधकाररयों को प्रनयुक् त दकया। स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, िादेप्रशक तथा युक् त नामक पदाप्रधकाररयों को जनता के बीच जाकर धमय िचार करने और उपदेश देने का आदेश ददया।
अप्रभषेक के १३वें वषय के बाद उसने बौद्ध धमय िचार हेतु पदाप्रधकाररयों का एक नया वगय बनाया प्रजसे 'धमय महापात्र' कहा गया था। इसका कयय प्रवप्रभन् न धार्ममक सम्िदायों के बीच द्वेषभाव को प्रमटाकर धमय की एकता स्थाप्रपत करना था।
प्रवद्वानों अशोक की तुलना प्रवश् व इप्रतहास की प्रवभूप्रतयाुँ काांस्टेटाइन, ऐटोप्रनयस, अकबर, सेन्टपॉल, नेपोप्रलयन सीजर के साथ की है।
अशोक ने अबहसा, शाप्रन्त तथा लोक कल्यािकारी नीप्रतयों के प्रवश् वप्रवख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चररत्र "इप्रतहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धमायप्रधकाररयों, सन्त-महात्माओं आदद के बीच िकाशमान है और आकाश में िायः एकाकी तारा की तरह चमकता है।"

मृत्यु
अशोक ने लगभग 40 वषों तक शासन दकया प्रजसके बाद लगभग 234 ईसापूवय में उसकी मृत्यु हई। उसके कई सांतान तथा पप्रियाां थीं पर उनके बारे में अप्रधक पता नहीं है। उसके पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री सांघप्रमत्रा ने बौद्ध धमय के िचार में योगदान ददया।
अशोक की मृत्यु के बाद मौयय राजवांश लगभग 50 वषों तक चला।[कृपया उद्धरि जोडें]

मगध तथा भारतीय उपमहाद्वीप में कई जगहों पर उसके अवशेष प्रमले हैं। पटना (पाटप्रलपुत्र) के पास कुम्हरार में अशोककालीन अवशेष प्रमले हैं। लुप्रम्बनी में भी अशोक स्तांभ देखा जा सकता है। कनायटक के कई स्थानों पर उसके धमदपदेशों के प्रशलोत्कीिय अप्रभलेख प्रमले हैं।
परवती मौयय सम्राट
मगध साम्राज्य के महान मौयय सम्राट अशोक की मृत्यु २३७-२३६ ई. पू. में (लगभग) हई थी। अशोक के उपरान्त अगले पाुँच दशक तक उनके प्रनबयल उत्तराप्रधकारी शासन सांचाप्रलत करते रहे।
जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मि ग्रन्थों में अशोक के उत्तराप्रधकाररयों के शासन के बारे में परस्पर प्रवरोधी प्रवचार पाये जाते हैं। पुरािों में अशोक के बाद ९ या १० शासकों की चचाय है, जबदक ददव्यादान के अनुसार ६ शासकों ने अशोक के बाद शासन दकया। अशोक की मृत्यु के बाद मौयय साम्राज्य पप्रश् चमी और पूवी भाग में बुँट गया। पप्रश् चमी भाग पर कुिाल शासन करता था, जबदक पूवी भाग पर सम्िप्रत का शासन था। लेदकन १८० ई. पू. तक पप्रश् चमी भाग पर बैप्रक्ाया यूनानी का पूिय अप्रधकार हो गया था। पूवी भाग पर दशरथ का राज्य था। वह मौयय वांश का अप्रन्तम शासक है।

Indian History : चाणक्य

Indian History : चाणक्य: चाणक्य (अनुमानतः ईसापूर्व 375 - ईसापूर्व 225) चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। वे ' कौटिल्य ' नाम से भी विख्यात हैं। उन्होने...

चाणक्य


चाणक्य (अनुमानतः ईसापूर्व 375 - ईसापूर्व 225) चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। वे 'कौटिल्य' नाम से भी विख्यात हैं। उन्होने नंदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया। उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि का महान ग्रंन्थ है। अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है।

मुद्राराक्षस के अनुसार इनका असली नाम 'विष्णुगुप्त' था। विष्णुपुराण, भागवत आदि पुराणों तथा कथासरित्सागर आदि संस्कृत ग्रंथों में तो चाणक्य का नाम आया ही है, बौद्ध ग्रंथो में भी इसकी कथा बराबर मिलती है। बुद्धघोष की बनाई हुई विनयपिटक की टीका तथा महानाम स्थविर रचित महावंश की टीका में चाणक्य का वृत्तांत दिया हुआ है। चाणक्य तक्षशिला (एक नगर जो रावलपिंडी के पास था) के निवासी थे। इनके जीवन की घटनाओं का विशेष संबंध मौर्य चंद्रगुप्त की राज्यप्राप्ति से है। ये उस समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। कहते हैं कि चाणक्य राजसी ठाट-बाट से दूर एक छोटी सी कुटिया में रहते थे।

उनके नाम पर एक धारावाहिक भा बना था जो दूरदर्शन पर 1990 के दशक में दिखाया जाता था।

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परिचय

चद्रगुप्त के साथ चाणक्य की मैत्री की कथा इस प्रकार है-

पाटलिपुत्र के राजा नंद या महानंद के यहाँ कोई यज्ञ था। उसमें ये भी गए और भोजन के समय एक प्रधान आसन पर जा बैठे। महाराज नंद ने इनका काला रंग देख इन्हें आसन पर से उठवा दिया। इसपर क्रुद्ध होकर इन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जबतक मैं नंदों का नाश न कर लूँगा तबतक अपनी शिखा न बाँधूँगा। उन्हीं दिनों राजकुमार चंद्रगुप्त राज्य से निकाले गए थे। चद्रगुप्त ने चाणक्य से मेल किया और दोनों आदमियों ने मिलकर म्लेच्छ राजा पर्वतक की सेना लेकर पटने पर चढ़ाई की और नंदों को युद्ध में परास्त करके मार डाला।

नंदों के नाश के संबंध में कई प्रकार की कथाएँ हैं। कहीं लिखा है कि चाणक्य ने शकटार के यहाँ निर्माल्य भेजा जिसे छूते ही महानंद और उसके पुत्र मर गए। कहीं विषकन्या भेजने की कथा लिखी है। मुद्राराक्षस नाटक के देखेने से जाना जाता है कि नंदों का नाश करने पर भी महानंद के मंत्री राक्षस के कौशल और नीति के कारण चंद्रगुप्त को मगध का सिंहासन प्राप्त करने में बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ पडीं। अंत में चाणक्य ने अपने नीतिबल से राक्षस को प्रसन्न किया और चंद्रगुप्त को मंत्री बनाया। बौद्ध ग्रंथो में भी इसी प्रकार की कथा है, केवल 'महानंद' के स्थान पर 'धननंद' है।

जीवन-चरित

Description: https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/9/90/Chandragupta_Empire_320_BC.png/300px-Chandragupta_Empire_320_BC.png

चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य (323 ईसापूर्व)

यद्यपि कौटिल्य के जीवन के संबंध में प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है। उनके जन्मस्थान के संबंध में भी मतभेद पाया जाता है।

कुछ विद्वानों के अनुसार कौटिल्य का जन्म पंजाब के 'चणक' क्षेत्र में हुआ था, जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि उसका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। कई विद्वानों का यह मत है कि वह कांचीपुरम का रहने वाला द्रविण ब्राह्मण था। वह जीविकोपार्जन की खोज में उत्तर भारत आया था। कुछ विद्वानों के मतानुसार केरल भी उसका जन्म स्थान बताया जाता है। इस संबंध में उसके द्वारा चरणी नदी का उल्लेख इस बात के प्रमाण के रूप में दिया जाता है। कुछ सन्दर्भों में यह उल्लेख मिलता है कि केरल निवासी विष्णुगुप्त तीर्थाटन के लिए वाराणसी आया था, जहाँ उसकी पुत्री खो गयी। वह फिर केरल वापस नहीं लौटा और मगध में आकर बस गया। इस प्रकार के विचार रखने वाले विद्वान उसे केरल के कुतुल्लूर नामपुत्री वंश का वंशज मानते हैं। कई विद्वानों ने उसे मगध का ही मूल निवासी माना है। कुछ बौद्ध साहित्यों ने उसे तक्षशिक्षा का निवासी बताया है। कौटिल्य के जन्मस्थान के संबंध में अत्यधिक मतभेद रहने के कारण निश्चित रूप से यह कहना कि उसका जन्म स्थान कहाँ था, कठिन है, परंतु कई सन्दर्भों के आधार पर तक्षशिला को उसका जन्म स्थान मानना ठीक होगा।

वी. के. सुब्रमण्यम ने कहा है कि कई सन्दर्भों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सिकन्दर को अपने आक्रमण के अभियान में युवा कौटिल्य से भेंट हुई थी। चूँकि अलेक्जेंडर का आक्रमण अधिकतर तक्षशिला क्षेत्र में हुआ था, इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि कौटिल्य का जन्म स्थान तक्षशिला क्षेत्र में ही रहा होगा। कौटिल्य के पिता का नाम चणक था। वह एक गरीब ब्राह्मण था और किसी तरह अपना गुजर-बसर करता था। अतः स्पष्ट है कि कौटिल्य का बचपन गरीबी और दिक्कतों में गुजरा होगा। कौटिल्य की शिक्षा-दीक्षा के संबंध में कहीं कुछ विशेष जिक्र नहीं मिलता है, परन्तु उसकी बुद्धि का प्रखरता और उसकी विद्वता उसके विचारों से परिलक्षित होती है। वह कुरूप होते हुए भी शारीरिक रूप से बलिष्ठ था। उसकी पुस्तक 'अर्शशास्त्र' के अवलोकन से उसकी प्रतिभा, उसके बहुआयामी व्यक्तित्व और दूरदर्शिता का पूर्ण आभास होता है।

कौटिल्य के बारे में यह कहा जाता है कि वह बड़ा ही स्वाभिमानी एवं क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति था। एक किंवदंती के अनुसार एक बार मगध के राजा महानंद ने श्राद्ध के अवसर पर कौटिल्य को अपमानित किया था। कौटिल्य ने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी शिखा खोलकर यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक वह नंदवंश का नाश नहीं कर देगा तब तक वह अपनी शिखा नहीं बाँधेंगा। कौटिल्य के व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का यह भी एक बड़ा कारण था। नंदवंश के विनाश के बाद उसने चन्द्रगुप्त मौर्य को राजगद्दी पर बैठने में हर संभव सहायता की। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा गद्दी पर आसीन होने के बाद उसे पराक्रमी बनाने और मौर्य साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश किया। वह चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री भी बना।

कई विद्वानों ने यह कहा है कि कौटिल्य ने कहीं भी अपनी रचना में मौर्यवंश या अपने मंत्रित्व के संबंध में कुछ नहीं कहा है, परंतु अधिकांश स्रोतों ने इस तथ्य की संपुष्टि की है। 'अर्थशास्त्र' में कौटिल्य ने जिस विजिगीषु राजा का चित्रण प्रस्तुत किया है, निश्चित रूप से वह चन्द्रगुप्त मौर्य के लिये ही संबोधित किया गया है।

भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के कारण छोटे-छोटे राज्यों की पराजय से अभिभूत होकर कौटिल्य ने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का संकल्प किया। उसकी सर्वोपरि इच्छा थी भारत को एक गौरवशाली और विशाल राज्य के रूप में देखना। निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य उसकी इच्छा का केन्द्र बिन्दु था। आचार्य कौटिल्य को एक ओर पारंगत और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के रूप में मौर्य साम्राज्य का संस्थापक और संरक्षक माना जाता है, तो दूसरी ओर उसे संस्कृति साहित्य के इतिहास में अपनी अतुलनीय एवं अद्भुत कृति के कारण अपने विषय का एकमात्र विद्वान होने का गौरव प्राप्त है। कौटिल्य की विद्वता, निपुणता और दूरदर्शिता का बखान भारत के शास्त्रों, काव्यों तथा अन्य ग्रंथों में परिव्याप्त है। कौटिल्य द्वारा नंदवंश का विनाश और मौर्यवंश की स्थापना से संबंधित कथा विष्णु पुराण में आती है।

अति विद्वान और मौर्य साम्राज्य का महामंत्री होने के बावजूद कौटिल्य का जीवन सादगी का जीवन था। वह 'सादा जीवन उच्च विचार' का सही प्रतीक था। उसने अपने मंत्रित्वकाल में अत्यधिक सादगी का जीवन बिताया। वह एक छोटा-से मकान में रहता था और कहा जाता है कि उसके मकान की दीवारों पर गोबर के उपले थोपे रहते थे।

उसकी मान्यता थी कि राजा या मंत्री अपने चरित्र और ऊँचे आदर्शों के द्वारा लोगों के सामने एक प्रतिमान दे सकता है। उसने सदैव मर्यादाओं का पालन किया और कर्मठता की जिंदगी बितायी। कहा जाता है कि बाद में उसने मंत्री पद त्यागकर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत किया था। वस्तुतः उसे धन, यश और पद का कोई लोभ नहीं था। सारतत्व में वह एक 'वितरागी', 'तपस्वी, कर्मठ और मर्यादाओं का पालन करनेवाला व्यक्ति था, जिसका जीवन आज भी अनुकरणीय है।

एक प्रकांड विद्वान तथा एक गंभीर चिंतक के रूप में कौटिल्य तो विख्यात है ही, एक व्यावहारिक एवं चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में भी उसे ख्याति मिली है। नंदवंश के विनाश तथा मगध साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार में उसका ऐतिहासिक योगदान है। सालाटोर के कथनानुसार प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में कौटिल्य का सर्वोपरि स्थान है। मैकियावेली की भाँति कौटिल्य ने भी राजनीति को नैतिकता से पृथक कर एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में अध्ययन करने का प्रयास किया है। जैसा कि काहा जाता ह

नाम, जन्मतिथि और जन्मस्थान

कौटिल्य का नाम, जन्मतिथि और जन्मस्थान तीनों ही विवाद के विषय रहे हैं। कौटिल्य के नाम के संबंध में विद्वानों के बीच मतभेद पाया जाता है। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के प्रथम अनुवादक पंडित शामाशास्त्री ने कौटिल्य नाम का प्रयोग किया है। 'कौटिल्य नाम' की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए पंडित शामाशास्त्री ने विष्णु-पुराण का हवाला दिया है जिसमें कहा गया है

तान्नदान् कौटल्यो ब्राह्मणस्समुद्धरिष्यति।

इस संबंध में एक विवाद और उत्पन्न हुआ है और वह है कौटिल्य और कौटल्य का। गणपति शास्त्री ने 'कौटिल्य' के स्थान पर 'कौटल्य' को ज्यादा प्रमाणिक माना है। उनके अनुसार कुटल गोत्र होने के कारण कौटल्य नाम सही और संगत प्रतीत होता है। कामन्दकीय नीतिशास्त्र के अन्तर्गत कहा गया है

कौटल्य इति गोत्रनिबन्धना विष्णु गुप्तस्य संज्ञा।

सांबाशिव शास्त्री ने कहा है कि गणपतिशास्त्री ने संभवतः कौटिल्य को प्राचीन संत कुटल का वंशज मानकर कौटल्य नाम का प्रयोग किया है, परन्तु इस बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि कौटिल्य संत कुटल के वंश और गोत्र का था। 'कोटिल्य' और 'कौटल्य' नाम का विवाद और भी कई विद्वानों ने उठाया है। वी. ए. रामास्वामी ने गणपतिशास्त्री के कथन का समर्थन किया है। आधुनिक विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है। पाश्चात्य विद्वानों ने कौटल्य और कौटिल्य नाम के विवाद को अधिक महत्त्व नहीं दिया है। उनके मतानुसार इस प्रकार की भ्रांति हिज्जे के हेर-फेर के कारण हो सकती है। अधिकांश पाश्चात्य लेखकों ने कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। भारत में विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है, बल्कि ज्यादातर कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। इस संबंध में राधाकांत का कथन भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसने अपनी रचना 'शब्दकल्पद्रम' में कहा है

अस्तु कौटल्य इति वा कौटिल्य इति या चाणक्यस्य गोत्रनामधेयम्।

कौटिल्य के और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है। जिसमें चाणक्य नाम प्रसिद्ध है। कौटिल्य को चाणक्य के नाम से पुकाररने वाले कई विद्वानों का मत है कि चाणक का पुत्र होने के कारण यह चाणक्य कहलाया। दूसरी ओर कुछ विद्वानों के कथानानुसार उसका जन्म पंजाब के चणक क्षेत्र में हुआ था, इसलिए उसे चाणक्य कहा गया है, यद्यपि इस संबंध में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। एक बात स्पष्ट है कि कौटिल्य और चाणक्य एक ही व्यक्ति है।

उपर्युक्त नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख मिलता है, जैसे विष्णुगुप्त। कहा जाता है कि उसका मूल नाम विष्णुगुप्त ही था। उसके पिता ने उसका नाम विष्णुगुप्त ही रखा था। कौटिल्य, चाणक्य और विष्णुगुप्त तीनों नामों से संबंधित कई सन्दर्भ मिलते हैं, किंतु इन तीनों नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है, जैसे वात्स्यायन, मलंग, द्रविमल, अंगुल, वारानक्, कात्यान इत्यादि इन भिन्न-भिन्न नामों में कौन सा सही नाम है और कौन-सा गलत नाम है, यह विवाद का विषय है। परन्तु अधिकांश पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने 'अर्थशास्त्र' के लेखक के रूप में कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है।

कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने कौटिल्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। विन्टरनीज, जॉली और कीथ के मतानुसार कौटिल्य नाम प्रतीकात्मक है, जो कूटनीति का प्रतीक है। पांतजलि द्वारा अपने महाभाष्य में कौटिल्य का प्रसंग नहीं आने के कारण उनके मतों का समर्थन मिला है। जॉली ने तो यहाँ तक कह डाला है कि 'अर्थशास्त्र' किसी कौटिल्य नामक व्यक्ति की कृति नहीं है। यह किसी अन्य पंडित या आचार्य का रचित ग्रंथ है। शामाशास्त्री और गणपतिशास्त्री दोनों ने ही पाश्चात्य विचारकों के मत का खंडन किया है। दोनों का यह निश्चय मत है कि कौटिल्य का पूर्ण अस्तित्व था, भले ही उसके नामों में मतांतर पाया जाता हो। वस्तुतः इन तीनों पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा कौटिल्य का अस्तित्व को नकारने के लिए जो बिंदु उठाए गए हैं, वे अनर्गल एवं महत्त्वहीन हैं। पाश्चात्य विद्वानों का यह कहना है कि कौटिल्य ने इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया है कि वह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में अमात्य या मंत्री था, इसलिए उस 'अर्थशास्त्र' का लेखन नहीं माना जा सकता है। यह बचकाना तर्क है। कौटिल्य के कई सन्दर्भों से यह स्पष्ट हो चुका है कि उसने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से नंदवंश का नाश किया था और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी।

कौटिल्य की कृतियाँ

कौटिल्य की कृतियों के संबंध में भी कई विद्वानों के बीच मतभेद पाया जाता है। कौटिल्य की कितनी कृतियाँ हैं, इस संबंध में कोई निश्चित सूचना उपलब्ध नहीं है। कौटिल्य की सबसे महत्त्पूर्ण कृति अर्थशास्त्र की चर्चा सर्वत्र मिलती है, किन्तु अन्य रचनाओं के संबंध में कुछ विशेष उल्लेख नहीं मिलता है।

चाणक्य के शिष्य कामंदक ने अपने 'नीतिसार' नामक ग्रंथ में लिखा है कि विष्णुगुप्त चाणक्य ने अपने बुद्धिबल से अर्थशास्त्र रूपी महोदधि को मथकर नीतिशास्त्र रूपी अमृत निकाला। चाणक्य का 'अर्थशास्त्र' संस्कृत में राजनीति विषय पर एक विलक्षण ग्रंथ है। इसके नीति के श्लोक तो घर घर प्रचलित हैं। पीछे से लोगों ने इनके नीति ग्रंथों से घटा बढाकर वृद्धचाणक्य, लघुचाणक्य, बोधिचाणक्य आदि कई नीतिग्रंथ संकलित कर लिए। चाणक्य सब विषयों के पंडित थे। 'विष्णुगुप्त सिद्धांत' नामक इनका एक ज्योतिष का ग्रंथ भी मिलता है। कहते हैं, आयुर्वेद पर भी इनका लिखा 'वैद्यजीवन' नाम का एक ग्रंथ है। न्याय भाष्यकार वात्स्यायन और चाणक्य को कोई कोई एक ही मानते हैं, पर यह भ्रम है जिसका मूल हेमचंद का यह श्लोक है:

वात्स्यायन मल्लनागः, कौटिल्यश्चणकात्मजः।

द्रामिलः पक्षिलस्वामी विष्णु गुप्तोऽङ्गुलश्च सः।।

यों धातुकौटिल्या और राजनीति नामक रचनाओं के साथ कौटिल्य का नाम जोड़ा गया है। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि 'अर्थशास्त्र' के अलावा यदि कौटिल्य की अन्य रचनाओं का उल्लेख मिलता है, तो वह कौटिल्य की सूक्तियों और कथनों का संकलन हो सकता है।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र


चाणक्य की राज्य की अवधारणा

राज्य की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कौटिल्य ने स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा किन्तु कुछ संयोगवश की गई टिप्पणियों से स्पष्ट होता है कि वह राज्य के दैवी सिद्धांत के स्थान पर सामाजिक समझौते का पक्षधर था। हॉब्स, लॉक तथा रूसो की तरह राज्य की उत्पत्ति से पूर्व की प्राकृतिक दशा को वह अराजकता की संज्ञा देता है। राज्य की उत्पत्ति तब हुई जब मत्स्य न्याय के कानून से तंग आकर लोगों ने मनु को अपना राजा चुना तथा अपनी कृषि उपज का छठा भाग तथा स्वर्ण का दसवा भाग उसे देना स्वीकार किया। इसके बदले में राजा ने उनकी सुरक्षा तथा कल्याण का उत्तरदायित्व सम्भाला। कौटिल्य राजतंत्र का पक्षधर है।

राज्य के तत्त्व : सप्तांग सिद्धांत

कौटिल्य ने पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तकों द्वारा प्रतिपादित राज्य के चार आवश्यक तत्त्वों - भूमि, जनसंख्या, सरकार व सभ्प्रभुता का विवरण न देकर राज्य के सात तत्त्वों का विवेचन किया है। इस सम्बन्ध में वह राज्य की परिभाषा नहीं देता किन्तु पहले से चले आ रहे साप्तांग सिद्धांत का समर्थन करता है। कौटिल्य ने राज्य की तुलना मानव-शरीर से की है तथा उसके सावयव रूप को स्वीकार किया है। राज्य के सभी तत्त्व मानव शरीर के अंगो के समान परस्पर सम्बन्धित, अन्तनिर्भर तथा मिल-जुलकर कार्य करते हैं-

  • (1) स्वामी (राजा) शीर्ष के तुल्य है। वह कुलीन, बुद्धिमान, साहसी, धैर्यवान, संयमी, दूरदर्शी तथा युद्ध-कला में निपुण होना चाहिए।

  • (2) अमात्य (मंत्री) राज्य की आँखे हैं। इस शब्द का प्रयोग कौटिल्य ने मंत्रीगण, सचिव, प्रशासनिक व न्यायिक पदाधिकारियों के लिए भी किया है। वे अपने ही देश के जन्मजात नागरिक, उच्च कुल से सम्बंधित, चरित्रवान, योग्य, विभिन्न कलाओं में निपुण तथा स्वामीभक्त होने चाहिए।

  • (3) जनपद (भूमि तथा प्रजा या जनसंख्या) राज्य की जंघाएँ अथवा पैर हैं, जिन पर राज्य का अस्तित्व टिका है। कौटिल्य ने उपजाऊ, प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण, पशुधन, नदियों, तालाबों तथा वन्यप्रदेश प्रधान भूमि को उपयुक्त बताया है।

जनसंख्या में कृषकों, उद्यमियों तथा आर्थिक उत्पादन में योगदान देने वाली प्रजा सम्मिलित है। प्रजा को स्वामिभक्त, परिश्रमी तथा राजा की आज्ञा का पालन करने वाला होना चाहिए।

  • (4) दुर्ग (किला) राज्य की बाहें हैं, जिनका कार्य राज्य की रक्षा करना है। राजा को ऐसे किलों का निर्माण करवाना चाहिए, जो आक्रमक युद्ध हेतु तथा रक्षात्मक दृष्टिकोण से लाभकारी हों। कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्गों-औदिक (जल) दुर्ग, पर्वत (पहाड़ी) दुर्ग, वनदुर्ग (जंगली) तथा धन्वन (मरुस्थलीय) दुर्ग का वर्णन किया है।

  • (5) कोष (राजकोष) राजा के मुख के समान है। कोष को राज्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना गया है, क्योंकि राज्य के संचालन तथा युद्ध के समय धन की आवश्यकता होती है। कोष इतना प्रचुर होना चाहिए कि किसी भी विपत्ति का सामना करने में सहायक हो। कोष में धन-वृद्धि हेतु कौटिल्य ने कई उपाय बताए हैं। संकटकाल में राजस्व प्राप्ति हेतु वह राजा को अनुचित तरीके अपनाने की भी सलाह देता है।

  • (6) दण्ड (बल, डण्डा या सेना) राज्य का मस्तिष्क हैं। प्रजा तथा शत्रु पर नियंत्रण करने के लिए बल अथवा सेना अत्यधिक आवश्यक तत्त्व है। कौटिल्य ने सेना के छः प्रकार बताए हैं। जैसे-वंशानुगत सेना, वेतन पर नियुक्त या किराए के सैनिक, सैन्य निगमों के सैनिक, मित्र राज्य के सैनिक, शत्रु राज्य के सैनिक तथा आदिवासी सैनिक। संकटकाल में वैश्य तथा शूद्रों को भी सेना में भर्ती किया जा सकता है। सैनिकों को धैर्यवान, दक्ष, युद्ध-कुशल तथा राष्ट्रभक्त होना चाहिए। राजा को भी सैनिकों की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना चाहिए। कौटिल्य ने दण्डनीति के चार लक्ष्य बताए हैं- अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करना, प्राप्त वस्तु की रक्षा करना, रक्षित वस्तु का संवर्धन करना तथा संवख्रधत वस्तु को उचित पात्रों में बाँटना।

  • (7) सुहृद (मित्र) राज्य के कान हैं। राजा के मित्र शान्ति व युद्धकाल दोनों में ही उसकी सहायता करते हैं। इस सम्बन्ध में कौटिल्य सहज (आदर्श) तथा कृत्रिम मित्र में भेद करता है। सहज मित्र कृत्रिम मित्र से अधिक श्रेष्ठ होता है। जिस राजा के मित्र लोभी, कामी तथा कायर होते हैं, उसका विनाश अवश्यम्भावी हो जाता है।

इस प्रकार कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत राज्य के सावयव स्वरूप (Organic form) का निरूपण करते हुए सभी अंगो (तत्त्वों) की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालता है। यद्यपि यह सिद्धांत राज्य की आधुनिक परिभाषा से मेल नहीं खाता, किन्तु कौटिल्य के राज्य में आधुनिक राज्य के चारों तत्त्व विद्यमान हैं। जनपद भूमि व जनसंख्या है, अमात्य सरकार का भाव है तथा स्वामी (राजा) सम्प्रभुत्ता का प्रतीक है। कोष का महत्त्व राजप्रबन्ध, विकास व संवर्धन में है तथा सेना आन्तरिक शान्ति व्यवस्था तथा बाहरी सुरक्षा के लिए आवश्यक है। विदेशी मामलों में मित्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, किन्तु दुर्ग का स्थान आधुनिक युग में सुरक्षा-प्रतिरक्षा के अन्य उपकरणों ने ले लिया है।

राज्य का कार्य

प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन का अनुकरण करते हुए कौटिल्य ने भी राजतंत्र की संकल्पना को अपने चिंतन का केन्द्र बनाया है। वह लौकिक मामलों में राजा की शक्ति को सर्वोपरि मानता है, परन्तु कर्त्तव्यों के मामलों में वह स्वयं धर्म में बँधा है। वह धर्म का व्याख्याता नहीं, बल्कि रक्षक है। कौटिल्य ने राज्य को अपने आप में साध्य मानते हुए सामाजिक जीवन में उसे सर्वोच्च स्थान दिया है। राज्य का हित सर्वोपरि है जिसके लिए कई बार वह नैतिकता के सिद्धांतो को भी परे रख देता है।

कौटिल्य के अनुसार राज्य का उद्देश्य केवल शान्ति-व्यवस्था तथा सुरक्षा स्थापित करना नहीं, वरन् व्यक्ति के सर्वोच्च विकास में योगदान देना है। कौटिल्य के अनुसार राज्य के कार्य हैं-

सुरक्षा सम्बन्धी कार्य

वाह्य शत्रुओं तथा आक्रमणकारियों से राज्य को सुरक्षित रखना, आन्तरिक व्यवस्था न्याय की रक्षा तथा दैवी (प्राकृतिक आपदाओं) विपत्तियों- बाढ़, भूकंप, दुर्भिक्ष, आग, महामारी, घातक जन्तुओं से प्रजा की रक्षा राजा के कार्य हैं।

स्वधर्म का पालन कराना

स्वधर्म के अन्तर्गत वर्णाश्रम धर्म (वर्ण तथा आश्रम पद्धति) पर बल दिया गया है। यद्यपि कौटिल्य मनु की तरह धर्म को सर्वोपरि मानकर राज्य को धर्म के अधीन नहीं करता, किन्तु प्रजा द्वारा धर्म का पालन न किए जाने पर राजा धर्म का संरक्षण करता है।

सामाजिक दायित्व

राजा का कर्त्तव्य सर्वसाधारण के लिए सामाजिक न्याय की स्थापना करना है। सामाजिक व्यवस्था का समुचित संचालन तभी संम्भव है, जबकि पिता-पुत्र, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य आदि अपने दायित्वों का निर्वाह करें। विवाह-विच्छेद की स्थिति में वह स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों पर बल देता है। स्त्रीवध तथा ब्राह्मण-हत्या को गम्भीर अपराध माना गया है।

जनकल्याण के कार्य

कौटिल्य के राज्य का कार्य-क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। वह राज्य को मानव के बहुमुखी विकास का दायित्व सौंपकर उसे आधुनिक युग का कल्याणकारी राज्य बना देता है। उसने राज्य को अनेक कार्य सौंपे हैं। जैसे- बाँध, तालाब व सिंचाई के अन्य साधनों का निर्माण, खानों का विकास, बंजर भूमि की जुताई, पशुपालन, वन्यविकास आदि। इनके अलावा सार्वजनिक मनोरंजन राज्य के नियंत्रण में था। अनाथों निर्धनों, अपंगो की सहायता, स्त्री सम्मान की रक्षा, पुनख्रववाह की व्यवस्था आदि भी राज्य के दायित्व थे।

इस प्रकार कौटिल्य का राज्य सर्वव्यापक राज्य है। जन-कल्याण तथा अच्छे प्रशासन की स्थापना उसका लक्ष्य है, जिसमें धर्म व नैतिकता का प्रयोग एक साधन के रूप में किया जाता है। कौटिल्य का कहना है,

‘‘प्रजा की प्रसन्नता में ही राजा की प्रसन्नता है। प्रजा के लिए जो कुछ भी लाभकारी है, उसमें उसका अपना भी लाभ है।’’

एक अन्य स्थान पर उसने लिखा है।

‘‘बल ही सत्ता है, अधिकार है। इन साधनों के द्वारा साध्य है प्रसन्नता।’’

इस सम्बन्ध में सैलेटोरे का कथन है, ‘‘जिस राज्य के पास सत्ता तथा अधिकार है, उसका एकमात्र उद्देश्य अपनी प्रजा की प्रसन्नता में वृद्धि करना है। इस प्रकार कौटिल्य ने एक कल्याणकारी राज्य के कार्यों को उचित रूप में निर्देषित किया है।’’

कूटनीति तथा राज्यशिल्प

कौटिल्य ने न केवल राज्य के आन्तरिक कार्य, बल्कि वाह्य कार्यों की भी विस्तार से चर्चा की है। इस सम्बन्ध में वह विदेश नीति, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों तथा युद्ध व शान्ति के नियमों का विवेचन करता है। कूटनीति के सम्बन्धों का विश्लेषण करने हेतु उसने मण्डल सिद्धांत प्रतिपादित किया है-

मण्डल सिद्धांत

कौटिल्य ने अपने मण्डल सिद्धांत में विभिन्न राज्यों द्वारा दूसरे राज्यों के प्रति अपनाई नीति का वर्णन किया। प्राचीन काल में भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था। शक्तिशाली राजा युद्ध द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे। राज्य कई बार सुरक्षा की दृष्टि से अन्य राज्यों में समझौता भी करते थे। कौटिल्य के अनुसार युद्ध व विजय द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करने वाले राजा को अपने शत्रुओं की अपेक्षाकृत मित्रों की संख्या बढ़ानी चाहिए, ताकि शत्रुओं पर नियंत्रण रखा जा सके। दूसरी ओर निर्बल राज्यों को शक्तिशाली पड़ोसी राज्यों से सतर्क रहना चाहिए। उन्हें समान स्तर वाले राज्यों के साथ मिलकर शक्तिशाली राज्यों की विस्तार-नीति से बचने हेतु एक गुट या मंडलबनाना चाहिए। कौटिल्य का मंडल सिद्धांत भौगोलिक आधार पर यह दर्शाता है कि किस प्रकार विजय की इच्छा रखने वाले राज्य के पड़ोसी देश (राज्य) उसके मित्र या शत्रु हो सकते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार मंडल के केन्द्र में एक ऐसा राजा होता है, जो अन्य राज्यों को जीतने का इच्छुक है, इसे ‘‘विजीगीषु’’ कहा जाता है। ‘‘विजीगीषु’’ के मार्ग में आने वाला सबसे पहला राज्य ‘‘अरि’’ (शत्रु) तथा शत्रु से लगा हुआ राज्य ‘‘शत्रु का शत्रु’’ होता है, अतः वह विजीगीषु का मित्र होता है। कौटिल्य ने ‘‘मध्यम’’ ‘‘उदासीन’’ राज्यों का भी वर्णन किया है, जो सामर्थ्य होते हुए भी रणनीति में भाग नहीं लेते।

कौटिल्य का यह सिद्धांत यथार्थवाद पर आधारित है, जो युद्धों को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की वास्तविकता मानकर संधि व समझौते द्वारा शक्ति-सन्तुलन बनाने पर बल देता है।

छः सूत्रीय विदेश नीति

कौटिल्य ने विदेश सम्बन्धों के संचालन हेतु छः प्रकार की नीतियों का विवरण दिया है-

  • (1) संधि शान्ति बनाए रखने हेतु समतुल्य या अधिक शक्तिशाली राजा के साथ संधि की जा सकती है। आत्मरक्षा की दृष्टि से शत्रु से भी संधि की जा सकती है। किन्तु इसका लक्ष्य शत्रु को कालान्तर निर्बल बनाना है।

  • (2) विग्रह या शत्रु के विरुद्ध युद्ध का निर्माण।

  • (3) यान या युद्ध घोषित किए बिना आक्रमण की तैयारी,

  • (4) आसन या तटस्थता की नीति,

  • (5) संश्रय अर्थात् आत्मरक्षा की दृष्टि से राजा द्वारा अन्य राजा की शरण में जाना,

  • (6) द्वैधीभाव अर्थात् एक राजा से शान्ति की संधि करके अन्य के साथ युद्ध करने की नीति।

कौटिल्य के अनुसार राजा द्वारा इन नीतियों का प्रयोग राज्य के कल्याण की दृष्टि से ही किया जाना चाहिए।

कूटनीति आचरण के चार सिद्धांत

कौटिल्य ने राज्य की विदेश नीति के सन्दर्भ में कूटनीति के चार सिद्धांतों साम (समझाना, बुझाना), दाम (धन देकर सन्तुष्ट करना), दण्ड (बलप्रयोग, युद्ध) तथा भेद (फूट डालना) का वर्णन किया। कौटिल्य के अनुसार प्रथम दो सिद्धांतों का प्रयोग निर्बल राजाओं द्वारा तथा अंतिम दो सिद्धांतों का प्रयोग सबल राजाओं द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु उसका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दण्ड से श्रेयस्कर है। दण्ड (युद्ध) का प्रयोग अन्तिम उपाय के रूप में किया जाए, क्योंकि इससे स्वयं की भी क्षति होती है।

गुप्तचर व्यवस्था

कौटिल्य ने गुप्तचरों के प्रकारों व कार्यों का विस्तार से वर्णन किया है। गुप्तचर विद्यार्थी गृहपति, तपस्वी, व्यापारी तथा विष -कन्याओं के रूप में हो सकते थे। राजदूत भी गुप्तचर की भूमिका निभाते थे। इनका कार्य देश-विदेश की गुप्त सूचनाएँ राजा तक पहुँचाना होता था। ये जनमत की स्थिति का आंकलन करने, विद्रोहियों पर नियंत्रण रखने तथा शत्रु राज्य को नष्ट करने में योगदान देते थे। कौटिल्य ने गुप्तचरों को राजा द्वारा धन व मान देकर सन्तुष्ट रखने का सुझाव दिया है।